I wrote this hindi poem when I was 14, in a classroom. It was a free period and we were supposed to revise for our upcoming exams, and I wrote this instead... :)
आज अचानक से ज़हन में एक चिंगारी सी उठी,
नस-नस में बहने लगा गर्म खून,
न जाने कितने मौसम बीत गए इस आलम में
की याद ही नहीं कबसे जम सी गयी थी ये ज़िन्दगी|
हाँ, पहले भी कभी बहती थी ये लाल नदी,
गर्म-सर्द साँसें जाती थी और लौट के आती थी,
पर कभी नहीं छुआ मेरी आत्मा को इस तरह
जाने या बात ऐसी आज एक लम्हे में हो गयी|
आई अहन से ये लहर और झकझोर दिया
रूह थर्रा उठी, लबों पे आकर रुकी एक अनसुनी पुकार,
जाने किसकी थी वो अजनबी पर पहचानी सी दास्ताँ
जाने खो गया था किसका अस्तित्व उस भूली बिसरी शाम|
बह रही थी जो ज़िन्दगी समय की तीव्र बहाव पर,
आज अचानक ठहर गयी वो मानवता की पुकार पर|
एहसास एक अनजाना सा जागा मन की गहराईयों से,
एक अनछुआ अजनबी था वो कब्रों के इस शहर में,
खली मेरी आँखें उसने और कानों में चुपके से कहा,
जाग - इंसान है तू...
~Soumya
(1998...dont remember the exact date :))